भगवान बुद्ध करुणा के सागर

 तथागत भगवान गौतम बुद्ध करुणा के सागर

( Tathagat Gautam Buddha  )

      भारत को प्राचीन काल में जंबूद्वीप कहते थे। भारत के एक  राज्य मध्य प्रदेश , जो कि भारत के मध्य उत्तर सीमा पर स्थित है। मध्य प्रदेश की राजधानी कपिलवस्तु वहां शुद्धोधन राजा राज्य करता था।  वह सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल का था। उसकी दो रानियां थी। उनमें से एक का नाम था महामाया उसे एक पुत्र हुआ उसका नाम सिद्धार्थ। दूसरी रानी महाप्रजापति, उसे दो संतान हुई नंदा और रूप नंदा।
     रानी महामाया अपने मायके जा रही थी।  उसका प्रसूति काल समीप आया था। आषाढ़ पूर्णिमा नजदीक आई थी। बीच राह में लुंबिनी उद्यान लगता था।  विश्राम के लिए वह कुछ पल के लिए रुकी। बारिश का एक कारवां आकर चला गया। रानी महामाया पल भर विश्राम करने के लिए शाल वृक्ष के नीचे छाया में बैठी।  शाल वृक्ष की एक टहनी नीचे झुकी हुई थी।  उसकी नाजुक पत्तियां तोड़ने के लिए वह खड़ी हुई ; तभी सिद्धार्थ गौतम बुद्ध का जन्म हुआ।  उनके कोंमल पैरों का भारत की पावन भूमि को स्पर्श हुआ।  वसुंधरा थरथराई।  सामने हरा बगीचा ; सुपर खुला आकाश। ऐसे स्थान पर विश्व को शांति का संदेश देने वाले , विश्व के  महान करुणा सागर सिद्धार्थ गौतम बुद्ध का जन्म हुआ।  । बुद्ध  का मतलब होता है ज्ञानी।

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     सिद्धार्थ का जन्म राज परिवार में होने के कारण उनका बचपन अत्यंत सुविधा पुर्ण परिस्थिति में गुजरा।  लाड़ दुलार से उनकी अच्छी परवरिश हुई। उन्हें किसी भी चीज की कोई कमी नहीं थी। आगे चलकर उनका विवाह यशोधरा से हुआ।  यशोधरा पुत्रवती हुई। राजवैभव , सुख,विलास, संसारिक जीवन का उपभोग ले रहे सिद्धार्थ एक दिन नगर की सैर पर निकले। रास्ते से जाते हुए नगर की परिक्रमा करते हुए उन्हें तीन प्रकार की मानवीय अवस्थाएं दिखी। उनमेसे एक वृद्ध बुढा था। एक मृत इंसान था।  एक बीमार आदमी था। इन ३ मनाओ को देखकर उन्हें  इंसान को मिलने वाले दुख का एहसास हुआ। विश्व में मनुष्य को दुख से मुक्त करके स्वस्थ  करके शाश्वत सुख की प्राप्ति कैसे होगी; इस प्रश्न के चिंतन में वे खो गए। जीवन का दुख देखकर सिद्धार्थ सुख की खोज करने के लिए राज महल से बाहर निकलें ; क्योंकि राजमहल में भी उन्हें सुख नहीं था। उसी सोच में उन्होंने राज्य वैभव का त्याग किया राजमहल छोड़ दिया। अपनों का मोह  दूर किया। केवल मनुष्य के दुखों का विचार करते हुए घूमते रहे।  भूख-प्यास से परें रहकर एकाग्रता से चिंतन करणा यही उनका ध्येय था।  दुख, व्याधि , बुढ़ापा, मृत्यु यह मनुष्य का जीवनचक्र चलता ही रहेगा।   जपि- तपि , सन्यासी, साधू, अग्नि उपासक सभी सुखों के लिए तड़पते थे।  ईश्वर अगर दयावान है , तो संसार में दुख क्यों है ?  इन प्रश्न के उत्तर उन्हें जानने  थे । उन्होंने तपस्या शुरू की।  बाहर की दुनिया से परे रहकर चिंतन करते थे।
          एक  दिन में पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान लगाकर बैठे हुए थे।  तभी उनको उनके सभी प्रश्नों का उत्तर प्राप्त हुआ। पीपल  के वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान हुआ इसीलिए उसे बोधिवृक्ष कहां जाता है। उस दिन ध्यान करने वाले गौतम को ऐसा साक्षात्कार हुआ कि मानव के सब दुखों का मूल उसके स्वार्थी, अहंकारी,  मन में छुपा हुआ है।  तृष्णा यानी प्यास ही सभी दुखों का कारण है। काम, क्रोध, मद, मत्सर, संग्रह लोभ, लालच यह षडरिपु  मनुष्य के शरीर में वास्तव्य करते हैं। मनुष्य का मन चंचल है। और एक जगह, एक वस्तु पर नहीं ठहरता। मनुष्य के विचार हमेशा बदलते रहते हैं। जब मनुष्य निस्वार्थी और मैं पन से मुक्त होगा तो उसे शाश्वत सुख की प्राप्ति होगी।
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       जीवन में हर क्षण का महत्व है। क्षण जाते रहते हैं।  गया हुआ पल वापस नहीं आता। हमारे लिए अभी का पल ही सुख भरा है। क्योंकि आने वाले पल पर हमारी सत्ता नहीं है। हमारा नियंत्रण नहीं है। इसीलिए वासना विरक्त , तृष्णा विमुक्त होना यही अच्छे जीवन की चाबी है।  मनुष्य की आत्मा विशुद्ध होनी चाहिए। उसने स्वार्थों निरपेक्ष से जीवन जीना चाहिए।  बाहर का जग हम देखते हैं। वहां क्या हो रहा देखते हैं।  पर अपने अंदर के जग में क्या हो रहा है ; यह हम नहीं देखते हैं। अपने शरीर के अंदर अपने मन के अंदर क्या चल रहा है।  यह देखना मतलब विपश्यना। ऐसी उनकी शिक्षा थी। वैसे  गौतम बुद्ध ने खुद कुछ लेखन नहीं किया। फिर भी उनके शिष्य द्वारा उनकी सिख का सार ग्रन्थित किया हुआ है।  उसके अनुसार त्रिपिटक यह बुद्धा धर्मं की मूलभूत श्रुती मानी जाती है।
      यह ज्ञान की सीख देने के लिए गौतम बुद्ध  40 वर्ष पूर्ण भारत घूमे। उन्होंने स्थापित किया हुआ बुद्ध धर्म केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरे एशिया में फैला है। लोग उन्हें भगवान समान मानकर उनकी भक्ति करने लगे , पर उन्हें यहां मंजूर नहीं था।  बुद्ध धर्म का आगे चलकर बहुत बड़ा विस्तार हुआ। इसका सिलोन, चीन, जापान, कोरिया, थाईलैंड देश में भी उसका प्रचार एवं प्रसार हुआ।

 A )  चार आर्य सत्य 

  गौतम बुद्ध ने वाराणसी मे बताए हुवे 4 महान सिद्धांतों को चार आर्य सत्य कहते हैं। पहले तीन आर्यसत्त्योको संंव्रुतीसत्य व चौथे को परमार्थीक सत्य कहते है।
१) दुख :-
    जीवन दुखमय है। दुख ही सत्य है।  जन्म, बुढ़ापा, रोग, मरण, प्रिय व्यक्ति के साथ संबंध, प्रिय जनोंका वियोग, अपेक्षित फल ना मिलना, सभी दुखों का कारण है। यह सब दुख कारक है
२) दुख समुदाय :-
      दुखों का कारण काम ,तृष्णा,  संसारतृष्णा इंद्रियों के संबंधित तृष्णा इन सब से दुख मिलता है। संघर्ष होता है।
3) दुख का विरोध:-
        जिन चीजों से दुख मिलता है ;उन चीजों का सन्यासी वृत्ती से त्याग करें। त्याग करना, विरोध करना, तृष्णा का निर्माण ना होने देना।  संसार को अगर विरोध हुआ तो जन्म को विरोध होगा।  और बुढापा, मृत्यु , शोक, चिंता और निराशा इनकी निर्मिति नहीं होगी। बुद्धा के चिंतन का दुख विरोध यह केंद्र बिंदु माना जाता है।

४) दुख विरोध या दुख विरोधगामिनीप्रतिपद:-
 यह चौथा आर्य सत्य है। इसमें नैतिक शिक्षा व सदाचरण सिखाने वाला मार्ग आता है।  इसमें अष्टांग मार्ग समाविष्ट है।  प्रज्ञा, शील, समाधि इन तीन भागों में विभक्त किया गया है।  इन्हें त्रिरत्न भी कहते हैं।

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   निर्वाण प्राप्ति जिसे हुई है वह शांत चित्त होने से रूप, रस, गंध आदि विषय प्रहार होकर भी प्रचंड आंधी से स्थानभ्रष्ट न होने वाले पर्वत की तरह निश्चल होता है।

B ) अष्टांगमार्ग

भगवान गौतम बुद्ध ने उनके राहगीरों को मोक्ष प्राप्ति के लिए और निर्वाण प्राप्ति के लिए आठ प्रकार के कर्म करने की सीख दी है।  उसे अष्टांग मार्ग कहते हैं।

 1 )एक सम्यक दृष्टि    2 ) सम्यक संकल्प   3 )  सम्यक वाचा    4) सम्यक कर्म
 5) सम्यक आजीविका  6) सम्यक व्यायाम   7)  सम्यक स्मृति    8)  सम्यक समाधि

1) सम्यक दृष्टि- 
     यह सीख व्यक्ति को नैतिकता और सदाचरण की तरफ ले जाने वाली है। व्यक्ति ने प्रथम अपने कर्म के विषय में मानसिक दृष्टि से संपादन करना चाहिए ।  क्या योग्य है या अयोग्य है इसका विचार करना चाहिए। कोई भी कार्य  स्वार्थी बुद्धि से या लालच से नहीं करना चाहिए। वैसे ही अपने कार्य से शारीरिक या मानसिक हिंसा ना होने पाये।
२) सम्यक संकल्प
  हर व्यक्ति ने अपने जीवन के लिए कोई भी संकल्प करते वक्त उस संकल्प से कीसीको कोई दुख तो नहीं होने वाला है ना,  इसका ध्यान रखकर संकल्प लेना चाहिए।  अपने संकल्प पर बहुजन हिताय बहुजन सुखाय होने चाहिए।
  3) सम्यक वाचा:- 
मनुष्य के बोलने से  हीभी दुखों की निर्मिति होती है।  इसलिए हर किसी ने अपने बोलने से कटुता, असत्यता, गाली-गलौज, ज्यादा बोलना, निंदा करणा, जानीबपूर्वक टालना चाहिए। अपना बोलना बहुजन सुखाय बहुजन हिताय होगा ऐसा देखना चाहिए।
4 ) सम्यक कर्म :- 
  अपने कर्म भी बहुजन हिताय बहुजन सुखाय होने चाहिए।
5) सम्यक आजीविका:- 
 अपने जीवन की जरूरतें पूरी करते वक्त साधनाविवेक होना चाहिए। समान सम्मत मार्ग से आजीविका करनी  चाहिए।  वैसे ही अपकृत्य, हिंसा, चोरी, लुटपाट, अय्याशी ना करें।

6) सम्यक व्यायाम:- 
अपने इंद्रियों पर संयम रखें। इंद्रियों पर संयम रखके ही सभी कार्य करने चाहिए। मन में बुरे विचारों को स्थान नहीं देना चाहिए।

7)  सम्यक स्मृति:- 
 अपना जीवन दुखमय है। इसे ग्यात रखकर सम्यक  कारणों का विचार करना चाहिए।

8) सम्यक समाधि:- 
   आखिर में समाज के काम आने वाले कार्य करके निर्वाण तक पहुंचना चाहिए।
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   गौतम बुद्ध ने शब्द ज्ञान की जगह आचार अनुभूति इनको ज्यादा प्रधान्य  दिया है।
      संम्यक निरोध, निर्वाणप्राप्ति इनके लिए व्यक्ति ने प्रयत्नशील होना चाहिए।  मार्ग स्वीकृत होने वाले ध्यान मे मगन होने वाले मुक्त होते हैं।  केवल श्रवण या शब्द ज्ञान दुख निरोध नहीं कर सकते। अष्टांग मार्ग के हर अवस्था को सम्मा- सम्यक यह विशेषण जोड़ा जाता है।  इसका अर्थ अत्यधिक भूमिका को टालके मध्यम मार्ग का अंगीकार करना चाहिए।  अत्यंत आसक्ति व कठोर वैराग्य सन्यासीपन दोनों ही टालना चाहिए। तृष्णा व अविद्या यह दुख का मूल है।  वह दूर हो गया की परम शांति स्वरूप निर्वाण प्राप्त होता है।
गौतम बुद्ध के अष्टांगमार्ग का सार त्रिरत्न सिदधांत से स्पष्ट कीया जाता है। उसमे प्रज्ञा, शिल, समाधी ईसका समावेश होता है।

 C ) पंचशील

 भगवान गौतम बुद्ध ने अपने अनुयायियों को आचरण के जो पांच महत्वपूर्ण नियम बताए है उन्हें पंचशील कहते हैं।
1 )  किसी भी जीव की हत्या ना करना। (अहिंसा)
2 )  चोरी ना करना।
3 )   इंद्रियों की लालसा को पुर्ण न करना।
4 )  असत्य ना बोलना।
5 )   मादक नशिले पदार्थों के सेवन न करना।
 यही वह पंचशील है।

D ) बौद्ध धर्म के संप्रदाय

हीनयान और महायान संप्रदाय भेद बौद्ध धर्म में देखते हैं।

 1 ) हिनयान :-   हिनयान संप्रदाय यह परंपरानिष्ठ अपरिवर्तनवादी संप्रदाय है। इसी को थेरवाद या स्थावीरवाद भी कहा जाता है।  व्यक्तिगत निजी निर्वाण प्राप्ति उसमें प्रधान मानी गई है।  मुक्त पुरुष को अर्हत' यह संज्ञा दी गईं हैं।
 2 ) महायान :- इसके उल्टा महायान संप्रदाय यह परिवर्तनवादी है।  लोकसंग्रह, धर्म संगठन इन बातोको उसमे महत्व दिया गया दिखता है। मुख्यत: महायान संप्रदाय से बौद्ध धर्म का भारत में और भारत के बाहर प्रसार होने में मदद हुई दिखती है।  बोधीसत्व स ंज्ञा को महायान संप्रदाय में महत्व दिया है।

 E ) नैतिक अाचार;

      निर्वाण प्राप्ति के लिए बौद्ध धर्म में परलोकनिष्ठ जीवन दृष्टि की जगह व्यक्तिगत व सामाजिक नीतिनिष्ठा पर विशेष जोर दिया दिखता है। किसी भी प्रकार का प पाप न ाकरना पुण्य का संचय करना और चि त्त यानी मन विशुद्ध करना यह बुद्धा का अनुशासन है।
     इस शब्द में भगवान बुद्ध ने अपना धर्म सार बताया है
  इसवी सन पूर्व पांचवे  शतक से दसवे शतक तक , इस 1500 वर्ष के प्रदीर्घ  काल में बौद्ध धर्म में तीन बार परिवर्तन हुआ। विभिन्न धर्म परिषदों  ने बौद्ध धर्म को सुसंगठित व सुव्यवस्थित स्वरूप दिया।  बुद्ध संघ और धर्म इनसे तैयार होने होने वाला त्रिरत्न सिद्धांत। बौद्ध धर्म के विकास के लिए और स्थिरता के लिए कारण हुआ।
 बुद्धम शरणम गच्छामि।।
धम्मम शरणम गच्छामि।।ा
 संघम शरणम गच्छामि ।।।
यह बौद्ध धर्म का दिक्षामंत्र व निष्ठाव्रत है।
   धर्म शिक्षण व धर्म प्रसार ईन पद्धतीयोसे जनशि क्षा का कार्य करनेवाले प्रसिद्ध युनिवर्सिटीया निर्माण हुवी।  बौद्ध धर्म ने श्रीलंका, ब्रह्म देश, तिबेट, चीन, जापान इत्यादि देशो  में प्रतिष्ठा और सम्मान मिला। या विशेषता ध्यान संप्रदाय जैन बुद्धिज्म अधिक स्कोर अधिक प्रसिद्धि मिली। प्रज्ञा और करुणा ज्ञान और सेवा, त्याग और स्वयं इस पर आधारित बौद्ध धर्म यह विश्वधर्म का प्रभावी अविष्कार है। भारत में डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर , जिन्होंने उनके लाखों अनुयायियों के साथ हिंदू धर्म का त्याग करके बुध्द धर्म स्वीकारा अपनाया।  इसे आधुनिक कालका धर्म का प्रवर्तन कहा जाता है। गौतम बुद्ध इन्होंने स्थापित किया हुआ धर्म मतलब बुद्ध धर्म है।

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