सभी धर्मोकी साधना समानता और विज्ञान 1

  सत्य अनुभवो पर  लिखित ड़ॉ अजित देशमुख की अलौकिक किताब ।

                                  धर्मोकी साधना समानता और विज्ञान

                                      प्रस्तावना और आवश्यक चर्चा

                  इस पुस्तक में मैंने मेरे आध्यात्मिक अनुभव को साकार किया है। 1970-71 में जब मैं दसवीं क्लास में पढ़ रहा था। मेरी माँ ने मुझे उस वक्त कहा कि अब घर की पूजा तु करते जा, उसके पहले मैं नमस्कार हाथ जोड़कर और आरती में हिस्सा लेता था, माँ का आदेश मानकर इच्छा से नहीं डर कर, क्योंकि मैंने मना किया तो माँ उसका खास अरुा जो कि खाना नहीं मिलेगा और मुझे उसके कहने पर विश्वास  था, सो आना-कानी के बाद मैंने पूजा करना शुरू कर दी। उस वक्त मुझमें भगवान की इमेज घर के, आजु-बाजु के वातावरण से किताबों, कथाओं से यह हुआ कि कोई एक पॉवरफुल शक्ति है जो मानव जैसी दिखने वाली है, जो सब कुछ कर सकती है।

       जब मै पूजा करता था , तो उसमें कुछ भगवान पीतल, चांदी और पत्थर के थे और उनकी पूजा में अगरबत्ती लगाना, दिया लगाना फिर पानी-दूध से नहलाना और बाद में हलदी-कूंकू, अक्षद, गंध, फूल भगवान के हिसाब से चढ़ना और आखरी में भगवान को भोग, प्रसाद चढ़ाना और आखिरी में प्रार्थना करना कि अच्छी बुद्धी दे, पास करदे, अव्वल नंबर आने दे'' रोज पूजा का यह सिलसिला चलता रहा। मुझे उस समय यह समझ नहीं आ रहा था कि ये पीतल, चांदी या पत्थर के भगवान जो कि निर्जिव है वे कैसे पॉवरफूल हो सकते है ? यह शंका मेरे मन में हमेशा चलती रहती थी, लेकिन मैं पूजा बंद नहीं कर सकता था, क्योंकि पूजा बंद तो खाना बंद, इसलिए मेरी पूजा करने का सिलसिला चलता रहा।  दसवीं के बाद कॉलेज में गया तो रोज की पूजा का कार्यक्रम छुट गया, लेकिन स्नान के बाद माँ ने दिया हुआ श्री गजानन महाराज के फोटो को दोनों हाथों से नमस्कार करता रहा।  यह पूजा वैसे करीब-करीब खत्म हो गई और ग्रॅज्युएट सायन्स में, पोस्ट ग्रॅज्युएट सायन्स में होने से पूजा करने के बजाए खुद मेहनत करके पास होना, नौकरी पाना इस तरफ ज्यादा झुकाव हो गया। ऐसा समझो कि 1970-71 से 1991-92 तक हाथ जोड़ना भी करीब-करीब बंद हो गया। इस दौरान पढ़ाई, खेल, कुछ आसन और बाद में नौकरी और बाद में पारिवारिक जिवन शुरू हो गया और दो बच्चों का पिता भी बन गया।  1991 से 1992 में मेरे 17 से 18 अपघात हुए, फिर भी मैंने कभी भगवान की मूरत को हाथ नहीं जोड़े और ना ही कभी भविष्य देखा, जो होगा उसको सहन करना यही उपाय चलता रहा।



          1992 के आखिरी में सब शरीर अपघातग्रस्त होने से खराब हो गया था, तो सोचा आसन किया जाये जो कि कॉलेज के दिनों में करता था, ताकि शरीर फिर से ठीक हो जाए। इसी दरम्यान मैं कुछ देर ध्यान करने बैठने लगा और कुछ ही दिनों में 1994 में मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मेरे शरीर में कुछ प्रवाह बहता है (यह प्रवाह को ही मैं अब बायो एनर्जी फ्लो (बीईएफ) कहता हूँ) बायो एनर्जी फ्लो मतलब ऑक्सीजन मिश्रीत हवा का फ्लो (प्रवाह) शरीर के बाहर से शरीर के अंदर जाता है और कार्बनडाय ऑक्साईड मिश्रीत हवा फ्लो (प्रवाह) बाहर आता है। जब तक यह फ्लो (प्रवाह) शरीर के अंदर है उसे मैंने बायो एनर्जी फ्लो (प्रवाह) बोला है। यह जन्म से लेकर मृत्यु तक रहता है।
     यह प्रवाह क्या है, उसकी मुझे उत्सुकता हुई उसकी खोज में उस विषय की किताबें पढ़ने लगा और उसमें कुछ शब्द आये जैसे कुंडलिनी ।  यह कुंडलिनी क्या है, इसकी खोज के लिए मैंने प्रयास शुरू कर दिए और बहोत सारी किताबे पढ़ने के बाद एक महत्वपूर्ण बात मालुम हुई कि इसका अभ्यास किसी गुरु के मार्गदर्शन के बगैर न किया जाये। लेकिन मैंने ध्यान करना जारी रखा, क्योंकि गुरु किसको बनाया जाये एक यह भी प्रश्न था। धारा प्रवाह ध्यान में शुरू था और इसका ज्ञान मुझे कौन देगा, मुझे इसका भी पता नहीं था। मैंने निश्चय किया कि ध्यान शुरू रखो, धैर्य से काम लेना यही एक रास्ता मेरे सामने था। इस दरम्यान मैंने जहाँ ध्यान सिखाते है वहां जाने की कोशिश की, लेकिन मेरा वि·ाास कहीं नहीं बैठा, मैं किसी आदमी को भगवान मानने को तैयार ही नहीं था। फिर एक लेखक जिसने 6-7 किताबें योगा पर लिखी थी, उनको पूछा कि आपको प्राणायाम का अनुभव है क्या? उन्होंने साफ मना कर दिया लेकिन उन्होंने ईगतपुरी जाकर वहां ज्ञान का रास्ता मिल सकता है, यह रास्ता दिखाया और उस दौरान मुझे प्राणशक्ति, ऊर्जा का अनुभव हो रहा था, लेकिन मेरी सच क्या है यह जानने में रूची थी, सो मैंने ज्ञान को बढ़ाने के लिए विपश्यना के शिबीर किए, जिससे मुझे बीईएफ /धारा प्रवाह/ ऊर्जा प्रवाह/ प्राण शक्ति का अनुभव गहरा हुआ।  इसी दौरान हर धर्म के पूजा स्थान पर जैसे मंदिर, मस्जिद, दरगाह, बौद्ध विहार, जैन मंदिर, गुरुद्वारा, चर्च को भेंट देना शुरू किया और आश्चर्य की बात कि मुझे सभी जगह का माहौल शांतिस्वरुप, प्रसन्न और ऐक जैसा लगा। 

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        सन 2000 से 2016 तक पीएच.डी मार्गदर्शन करने में और नौकरी में जिम्मेदारी बढ़ने के कारण मैंने साधना को अपने से अलग रखा। लेकिन धारा प्रवाह का मुझे हमेशा अनुभव आता रहा। रिटायर्ड होने के बाद मैंने यह योजना बनाई कि पूरा भारत भ्रमण किया जाए और मैंने तीन साल में 30 स्टेटस्, 6 युनियन टेरिटोरिज, कश्मीर और लेह छोड़ के अकेला ही बगैर मोबाइल, कैमेरा, घड़ी भ्रमण किया ताकि पूरे लगन के साथ देश में जो भी चिजें हैं उसको समझ सकू। इस दौरान मैंने सैकड़ो पूजा स्थान अलग-अलग धर्मों को भेंट दिए और मुझे यह समझ में आया कि हर एक जगह का माहौल मानस स्तर पर एक जैसा, शांती स्वरूप और प्रसन्नदायक और मन को धिरज देने वाला है। भारत भ्रमण के दौरान सभी स्थानों के साथ-साथ मैं अलग-अलग धर्मों के पूजा स्थान में भी जाता था। तो एक साल के बाद मुझे ऐसा ध्यान में आया कि जो कुछ लोग वहाँ पर दर्शन को आते है और अपने धर्म के अनुरूप जो भी मुद्रा/पोझीशन बनाते है जैसे नमस्कार करना, नमाज पड़ना उसका मुझे अंदर से धारा प्रवाह का अनुभव हुआ। सबसे पहले यह घटना पटना में गुरुद्वारा में घटी। उस वक्त मेरे ध्यान में आया जो भी भक्तगण वहाँ आते थे, उनकी जो मुद्राएं अलग-अलग होती थी उसका धारा प्रवाह का अनुभव मुझे अनुभव में आता था। इसके पहले यह अनुभव मुझे नहीं था। यह अनुभव के वजह से मैंने जान-बुझकर मंदिर में, मस्जिद, दर्गाह में, बौद्ध मंदिर में, जैन मंदिर में, गुरुद्वारा में और चर्च में वहां जो भक्त गण पुजा के वक्त आरती के वक्त, नमाज के वक्त और जब भी दिनभर प्रार्थना स्थल में आते थे तो उनके जो अलग-अलग भगवान को, अल्लाह को प्रार्थना करने का पोस्चर्स थे वह मुझे अनुभव में आने लगा और आश्चर्य की यह बात कि यह सब पोस्चर्स अलग-अलग दिख रहे थे, लेकिन उनका धारा प्रवाह कुछ पोस्चर्स के लिए एक जैसा था और कुछ पोस्चर्स के लिए भी एक जैसा था। इसका मतलब यह हो रहा था कि उपर से मुद्रा अलग-अलग दिख रही थी, लेकिन अंदर से ऊर्जा लेव्हल पे/ धारा प्रवाह लेव्हल पे/ प्राणशक्ति लेव्हल पे या मॉलीक्यूलर फिल्ड लेव्हल पे एक ही जैसा था। इसका मतलब जो भी साधक अलग-अलग धर्मस्थान पर जाता है, जो भी प्रार्थना करता है वह दिखता अलग-अलग है लेकिन अंदर से वह एक जैसा ही प्रार्थना, एक जैसा ही प्रवाह बहता है, इसका मतलब कोई भी धर्म के साधक का एक ही तरह का बीईएफ बहता है जब वह उसके महाशक्ति की साधना करता है और उसे पाने का वह लक्ष्य है, मार्ग है। इसका मतलब हम सभी लोग एक लक्ष्य पर पहुँचने की कोशिश कर रहे है।

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          1994 से 2016 तक मेरे यह ध्यान में आया कि धारा प्रवाह, प्राणशक्ती पे कंट्रोल करना सबसे महत्व की बात है और मेरा उसपे कुछ कंट्रोल आया, मुझे प्राणायाम सिद्ध हुआ, जिसके वजह से मैं अपने आप मन को शुद्ध होने के बाद के अनुभव को कुछ समय के लिए अनुभव कर सकता हूँ, और हर धर्म में साधना ही आप अपना मन शुद्ध करो और उसके लिए जो भी मुद्रा पोजिशन लिया जाता है वह उपर से अलग-अलग दिखता है, लेकिन अंदर से एक जैसा ही काम करता है। मन शुद्ध करने के साथ-साथ आप दूसरो से इन्सानियत से बरताव नहीं करते तो उसका उद्देश्य सफल नहीं होता। 


धर्म का उद्देश्य यह है कि आप भी शांती से जिओ और दूसरों को भी शांति से जीने दो। धर्म तो यहां रिजन, हालात, वातावरण से पैदा हुआ है, लेकिन इन्सान उसके पहले से है। प्रार्थना/पूजा स्थान जाने से पहले सभी लोग घर से स्नान करके जाते है और कुछ पूजा स्थल के लगत ही हाथ-पैर, मुँह धोने की सुविधा उपलब्ध होती है। पूजा, प्रार्थना, प्रेअर, इबादत करने से पहले जो पूजास्थल होते है वहां के ई·ार, अल्ला, अरिहंत, येशू, बौैद्ध सदगुरु, श्री अकाल के प्रति अति आदरयुक्त शब्द उच्चारे जाते है। कही भजन चालू रहता है, यह ध्वनि के साथ मन को सर्वोच्च स्थान के प्रति एकाग्रता बढ़ाता है, उनके गुणों का स्मरण, उसके साथ ध्वनि का महत्व भी रखता है। जैसा घंटानाद, भजन, ढोलक, शंख, इस ध्वनि से शरीर में कंपन होने से शरीर के अंदर फंसा हुआ मैल/टॉक्झीन तोड़ने में और बाहर निकालने में मदद होती है। अपना शरीर देखा जाए तो करोड़ो सेल से बना हुआ है और उसका कचरा छः इंद्रियों द्वारा उसी करोडो सेल में हरदम बनना चालू रहता है। ध्वनि में जैसे ताली, नगारा, कीर्तन और मंत्र का वापर होता है। जिससे कचरा निकलेगा तो रसायन कचरे के साथ है वह भी निकल जाएगा तो चेतना को इसका एहसास कम होगा और पूर्ण रूप से मल निकला तो शुद्ध चेतना को ही सर्वोच्च अनुभव कहलाता है। वातावरण अच्छा बनाने के लिए पुष्प, दिया, धूप, अगरबत्ती, हलदी-कुमकुम, नारियल, फल, इत्र, प्रसाद का इस्तेमाल किया जाता है और यह सब बायो एनर्जी मॉलीक्यूलर फिल्ड बनाने में मदद करते है, साथ में सफाई का भी विशेष ध्यान दिया जाता है।

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क्रमशः 

धर्मोकी साधना समानता और विज्ञान - दूसरा भाग

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