सत्य अनुभवो पर लिखित ड़ॉ अजित देशमुख की अलौकिक किताब ।
धर्मोकी साधना समानता और विज्ञान
छठवा भाग 6/6
प्रार्थनास्थल में बिताये गए कुछ पल आपके लिए बड़े लाभदायक सिद्ध हो सकते है।
इस पुस्तक श्रृंखला के पाचवे भाग में आपने पढ़ा ,कैसे साधक अपना मन लगाता है और साधना ठिक तरह से करता है तो बी.ई.एफ. उसका शरीर लेफ्ट अँड राईट साफ होता है, उस वक्त आप निर्विचार हो जाते है। आपकी कॉन्शीयस स्टेट बाहरी शक्ती से जुड़ जाती है। इस वक्त आप सर्वोच्च स्थिति में सर्वोच्च शक्ति के पास होते है।
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एक से लेकर 8 कृतियों के बाद अब 9 वि कृती देखते है ,
9. हाथ जोड़ने के बाद वह मंदिर को बाए बाजू या मूर्ति को बाए बाजू से उसकी परिक्रमा करता है, उस वक्त जहाँ से परिक्रमा शुरू की वहां से 180 डिग्री तक इस दौरान बीईएफ दाहिने पैर से दाहिना धड, पूरा मेरुदंड, दाहिना हाथ और दाहिना मस्तिष्क (आर.बी.) और वहां से आगे टालू तक बीईएफ बहता है और दाहीना ब्रोन अॅक्टीवेट करता है (आकृती 2 नुसार)
10. और आगे 180 डिग्री से
360 डिग्री तक बाया मस्तिष्क याने लेफ्ट ब्रोन (एल.बी.) अॅक्टीवेट होती है
फिर वापस बाया मुँह, गर्दन, बाया हाथ, बाया धड़, मेरुदंड, बाया पैर तक बीईएफ
बहता है, सारांश में परिक्रमा में 180 डिग्री तक आधा शरीर पैर से मस्तिष्क
तक और 180 डिग्री से 360 डिग्री तक बचा हुआ आधा शरीर पैर से मस्तिष्क तक
बीईएफ साफ करता है जिससे शरीर का मल कम होता है तो शरीर मन शांत होता है।
11.
और 360 डिग्री पे या वापस जगह पर बीईएफ मेरुदंड के नीचे में रहता है।
अगर रुकावट नहीं हुई तो परिक्रमा खत्म होते ही नमस्कार करते वक्त पूरा
मस्तिष्क भर जाता है जो कि टालू पे पल्सेस जैसा महसूस होता है, फिर वह अपने
लिए, अपने परिवार के लिए भगवान से कृपा करने की प्रार्थना करता, जिससे यह
बायो एनर्जी खर्च होती है और वह अच्छा भाव अपने मेमरी में संस्कार के रूप
में बैठ जाता है और प्रसाद खाने से फिर अपनी बायो एनर्जी को कुछ मात्रा में
बढ़ाता है। बहुत सारे प्रार्थना स्थल में या घर में पूजा करने के बाद
प्रार्थना स्थल को परिक्रमा करते है या उसके अंदर पवित्र ठिकाण जैसा
गुरुद्वारा में या मंदिर (बौद्ध, जैन, हिंदू) में तो उसको भी परिक्रमा करते
है, घर में भी तुलसी या खुद की भी परिक्रमा करते है वैसा ही पिपल या वड का
पेड़ उसकी भी परिक्रमा करते है, चाहे प्रार्थना स्थल हो, या उसके अंदर का
पवित्र स्थल या पेड़ पिपल, बरगत या तुलसी या खुद की परिक्रमा आकृती 2 (घड़ी
की दिशा में) यह पद्धत से किया तो 180 डिग्री तक आधा शरीर पैर से ब्रोन तक
और 180 डिग्री से 360 डिग्री तक दूसरा आधा शरीर पैर से ब्रोन तक साफ होता
है, जिससे मल टॉक्झीन्स कम होने से मन शांत होता है। परिक्रमा यह हर धर्म
में किया जाता है।
आकृती - 2
12.
दोनों के दाहिने हाथ से दोनों के दाहिने मस्तिष्क तक बी.ई.एफ. जाता है और
उस भाग में आने वाले सब मसल्स ऑर्गन्स, ग्लैंडस्, इंद्रिया, पेरीफेरल नर्वस
सिस्टीम, सेंट्रल नर्वस सिस्टीम को साफ करता है तो शरीर का मल, टॉक्झीन कम
होने से मन को शांती महसूस होती है, अच्छा लगता है। धीरज बढ़ता है।
13. 12 जैसा.
14. बी.इ.एफ. निचे भाग में पैर तक.
15. दोनों पैर, दोनों हाथ से बी.इ.एफ. चलता है और बीच में आने वाले सब मसल्स, ऑर्गन्स, ग्लँडस्, ऑल सेन्सेस, पेरीफेरल नर्वस सिस्टीम, सेंट्रल नर्वस सिस्टीम को साफ करता है तो टॉक्झीन कम होता है तो मन शांत होता है।
16.बी.ई.एफ. शरीर के नीेचे भाग में जा रहा है।
17. दोनों मस्तिष्क तक बीईएफ चलता है और रस्ते में आने वाले मसल्स, ऑर्गन्स, ग्लँडस, ऑल सेन्सेस, पेरीफेरल नर्वस सिस्टीम, सेंट्रल नर्वस सिस्टीम को साफ करता है तो टॉक्झीन कम होता है तो मन शांत होता है।
18
18,19
में यही प्रक्रिया उदबत्ती/धुपबत्ती (घड़ी की दिशा में) घुमाने और आरती
करते वक्त या औक्षवान करते वक्त होती है। यह उदबत्ती या आरती की थाली
घुमाने से बाए बाजू से पूरा शरीर, पैर, धड, मेरुदंड, हाथ, गर्दन मुंह और
बाया मस्तिष्क अॅक्टीवेट होता है। 180 डिग्री तक। उसके बाद 180 से 360
डिग्री तक दाया शरीर अॅक्टीवेट होता है (पैर से मस्तिष्क तक) और बाद में
बीईएफ बचा तो मेरुंदड के नीचे के भाग में रहता है और प्रार्थना करके उसे
अपनी इच्छा में बदल सकते है। आकृती 3 नुसार आप समझ सकते है।
मतलब बीईएफ
दाहिने बाजू में आकृती 2 या बाये बाजू से (आकृती 3) मस्तिष्क जाकर वापस बाए
बाजु से या दाहीने बाजू से पैर की तरफ जाता है तो भी पूरा शरीर साफ होके
मन की शुद्धता बढ़ाता है और पूर्ण शुद्ध होने से सर्वोच्च शक्ति का अनुभव या
उसके पास जाने का अनुभव आता है।
आकृती - 3
जो भी प्रसिद्ध हिंदू मंदिर, दर्गाह, गुरुद्वारा, चर्च, जैन मंदिर
या बौद्ध मंदिर उसका नाम, उसकी महिमा, उसकी भव्यता, उसकी सजावट, अंदर की
बाहर की, मूर्ति की, अंदर के पवित्र स्थल की, फूलों की, कलर की, स्वच्छता
की, चादर की, प्रकाश की इसको दिखने से आँख से जो सिग्नल नर्वस सिस्टीम को
जाते है उससे उसकी प्रतिक्रिया अच्छा है, बहोत अच्छा है यह भाव निर्माण
करता और उससे उसका टॉक्सीन भी कम होता। यह अच्छा भाव उस परिसर में
करीब-करीब हर साधक के अंदर से निकलता है। वैसा ही वहाँ मौजूद इत्र, फूल,
उदबत्ती, लोबान, कपूर, फल, प्रसाद इनकी खुशबू से भी वही अच्छा है यह भाव
निकलकर वह परिसर में रहता है। वहां चल रही चांटींग, भजन, किर्तन, आरती,
प्रार्थना से वही अच्छा भाव पैदा होता है जो वह परिसर को भर देता है। वैसा
ही हर पवित्र स्थल के प्रति श्रद्धा, भक्ती, समाधान और अच्छे भावों से उस
परिसर भरे होते है। यह भी बायो एनर्जी होेने से उसका सेन्सेशन, फिलिंग,
स्कीन द्वारा नर्वस सिस्टीम द्वारा लोगों को होता है और लोग खीचे हुए उस
पवित्र ठिकाण को अपनी कामना पूर्ण करने और सर्वोच्च शक्तिमान को शरण जाने
भेंट देते हैं। उसके साथ-साथ आँख, नाक, कान, त्वचा और मन याने नर्वस
सिस्टीम इसके द्वारा पवित्र ठिकाण प्रति अच्छे भाव निकलते है। साथ ही उनका
जो टॉक्सीन शरीर और मन में रहता है वह भी कम होता है। तो प्रार्थना ठिकाण
जाने के विचार से वहां जाने से वहां के वातावरण से साधक का टॉक्सीन कम होके
शांत, पवित्र भाव शरीर मन में भर जाते है। याने आपके बुरे विचार कम होके
अच्छे विचार बढ़ जाते है और कोई भी प्रार्थना स्थल में बायो एनर्जी जो बुरे
विचारों में बदल गई है। उस बुरे विचारों अच्छे विचारों में बदलने की शक्ति
आपके पास होती है। आपको ठहराके, दृढ़ निश्चय से आपको ही करना है।
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